शुक्रवार 19 दिसंबर 2025 - 12:15
आयतुल्लाह बुरूजर्दी र.ह. की नमाज़ में बारगाह ए इलाही के सामने आज़िज़ी और नातवानी का एतेराफ

हौज़ा / बुज़ुर्गान ए दीन की सीरत में बंदगी का सबसे आला नमूना यह है कि वे इबादत के बाद भी अपने आपको हक़-ए-ख़ुदा अदा करने से क़ासिर समझते हैं। आयतुल्लाहिल उज़्मा बुरूजर्दी (रह.) की नमाज़ में यही कैफ़ियत वाज़ेह तौर पर नज़र आती थी।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद हुसैन बुरूजर्दी (रह.) की रूहानी ज़िंदगी में आज़िज़ी और एहसास-ए-ज़िम्मेदारी को ख़ास मक़ाम हासिल था। रिवायत की जाती है कि आप नमाज़ के दौरान, ख़ास तौर पर सज्दे से सर उठाते वक़्त, ज़बान-ए-हाल से बारगाह-ए-इलाही में अर्ज़ करते थे,ऐ अल्लाह! मैं माफ़ी चाहता हूँ, मुझमें इससे ज़्यादा अंजाम देने की ताक़त नहीं है।

यह बात आयतुल्लाह शैख़ मुर्तज़ा हाइरी (रह.) ने बयान की है। उनके मुताबिक, आयतुल्लाह बुरूजर्दी (रह.) की यह कैफ़ियत इस बात की निशानी थी कि हक़ीक़ी आरिफ़ अपनी इबादत और कोशिशों को कभी मुकम्मल नहीं समझते, बल्कि हमेशा ख़ुद को ख़ुदा के हक़ की अदायगी में कोताही करने वाला पाते हैं।

अहले मआरिफ़त के नज़दीक, यही एहसास-ए-नातवानी दरहक़ीक़त बंदगी की सबसे बुलंद निशानी है, क्योंकि इंसान जितना ज़्यादा ख़ुदा को पहचानता है, उतना ही अपनी कमज़ोरी का इकरार करता है। आयतुल्लाह बुरूजर्दी (रह.) की सीरत भी इसी हक़ीक़त की अमली तफ़सीर थी।

हवाला: किताब «अल्गू-ए-ज़िआमत»,पेज 58

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